साल में जिस तरह तीज-त्योहार आते हैं, वैसे ही हर माह दो माह में जनप्रतिनिधियों को ट्रैफिक सुधारने की सवारी आती है। रेसीडेंसी से लेकर पंचतारा होटलों में मंत्री-अधिकारी बैठकें करते हैं, सुझावों की गेंद उछाली जाती है। प्लानिंग होती है, लेकिन अगली फॉलोअप बैठक में पता चलता है जितनी चर्चा हुई, उतना तो काम हुआ नहीं। सरकारी और हूटर लगी गाड़ियों में घूमने वालों को कॉमन मेन की ट्रैफिक प्रॉब्लम कैसे समझ आएगी… इन गाड़ियों के लिए तो वैसे ही रास्ते आबाद रहते हैं। बेहतर होगा कि शहर का ट्रैफिक सुधारने के लिए पुलिस-प्रशासन-नगर निगम आदि विभागों के अधिकारी भी कॉमन मेन की तरह दोपहिया वाहनों पर पांच-सात दिन व्यस्त मार्गों और उन्हें जोड़ने वाली गलियों से चौराहे-चौराहे घूमें तो सही… तब पता चलेगा प्रॉब्लम का इलाज कैसे करना है। लाल बत्ती का उल्लंघन करने वालों के तत्काल चालान-वसूली में ट्रैफिक टीम इतनी इतनी मुस्तैद रहती है कि सीधे जाने वाले वाहनों के अतिक्रमण से दम तोड़ते लेफ्ट टर्न की हालत देखने की फुर्सत ही नहीं रहती। लेफ्ट जाने वाले तमाम वाहन चालक बेमतलब इंतजार का दंड भुगतने के साथ ही पेट्रोल के साथ दिल जलाते रहते हैं। यह भी हो सकता है कि प्रयोग के तौर पर ट्रैफिक पुलिस पहले फूल बांटना शुरू कर दे, बाद में मुनादी करा दे कि लेफ्ट टर्न पर बलात कब्जे पर दंड वसूला जाएगा… तब शायद सुधार हो। चौराहों पर लगे कैमरे वाकई काम कर रहे हैं तो फिर ट्रैफिक में क्या सुधार किया जाए… यह तो कंट्रोल रूम में रिकॉर्डिंग देखकर भी किया जा सकता है।